जंगल, ज्ञान और जागरूकता: झारखंड के पांड्रासाली गांव ने दिया पर्यावरण संरक्षण का नया मॉडल
जंगल, ज्ञान और जागरूकता: झारखंड के वेस्ट सिंहभूम अंतर्गत पांड्रासाली से उपजा पर्यावरण संरक्षण का नया संदेश
वेस्ट सिंहभूम : जब हम जलवायु संकट की बात करते हैं, तो अक्सर नीतियों, सम्मेलनों और तकनीकी समाधानों की ओर देखते हैं। परंतु असली बदलाव अक्सर उन जगहों से आता है, जहां प्रकृति और संस्कृति का गहरा रिश्ता होता है—जैसे पांड्रासाली ! झारखंड का एक छोटा सा आदिवासी गांव, जिसने हाल ही में तीन दिवसीय पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम के माध्यम से एक बड़ी प्रेरणा दी है।
6 से 8 सितंबर 2025 तक पांड्रासाली में आयोजित यह कार्यक्रम केवल पौधे लगाने या तितलियों के बारे में जानने का उपक्रम नहीं था। यह एक जीवंत प्रयोग था, जिसमें वैज्ञानिक विधियों और आदिवासी ज्ञान के बीच की खाई को पाटने की ईमानदार कोशिश की गई।
इस अनूठे आयोजन में दो संस्थाओं— मार्गस्था रिसर्च फाउंडेशन और ग्लोबल अचीवमेंट ट्रस्ट—का योगदान सराहनीय रहा। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि कार्यक्रम के केंद्र में हो समुदाय था—वह समुदाय जो सदियों से प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की संस्कृति जीता आया है।
कार्यक्रम की शुरुआत बायोडायवर्सिटी पार्क में वृक्षारोपण से हुई। लेकिन यह महज़ औपचारिकता नहीं थी। साल, आम और आंवला जैसे देशी पौधों का चयन इस बात का संकेत था कि यह पहल केवल हरियाली बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए थी।
जिला वन पदाधिकारी आदित्य नारायण द्वारा दिए गए पौधों ने एक तरह से सरकारी तंत्र और स्थानीय समुदाय के बीच सहयोग का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया। यह भी दिखा कि पर्यावरण संरक्षण केवल एक NGO या विभागीय दायित्व नहीं, बल्कि साझी जिम्मेदारी है।
दूसरे दिन का आकर्षण था प्रियंका हाज़रा द्वारा लिया गया हर्बेरियम वर्कशॉप। इसमें छात्रों और ग्रामीणों ने न केवल पौधों को इकट्ठा करना सीखा, बल्कि यह भी समझा कि पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक तरीके से कैसे दस्तावेजीकृत किया जा सकता है।
यह सत्र इस बात का उदाहरण था कि कैसे एक ग्रामीण छात्र, जिसकी दादी जंगल से जड़ी-बूटियाँ लाने में पारंगत है, अब वैज्ञानिक नाम और संरक्षित नमूने बनाकर उसी ज्ञान को नई पहचान दे सकता है।
तीसरे दिन का फोकस था तितली संरक्षण। कीट विज्ञानी सुत्रिस्ना हलदर ने तितलियों की पारिस्थितिकी में भूमिका समझाई—कैसे ये छोटे जीव बायोडायवर्सिटी के संकेतक होते हैं और प्राकृतिक संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं।
जब छात्र भागबिला घाटी में तितलियों का अवलोकन कर रहे थे, तो यह केवल एक फील्ड ट्रिप नहीं थी। यह प्रकृति के साथ एक रिश्ता जोड़ने की प्रक्रिया थी, जिसमें देखना, महसूस करना और समझना—तीनों शामिल थे।
कार्यक्रम के अंत में मार्गस्था रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक रंजन साव ने एक बेहद सटीक बात कही—
"पर्यावरणीय शिक्षा तभी सार्थक होगी जब वह स्थानीय समुदायों और संस्कृति से जुड़ी हो।"
आज जब पूरे देश में पर्यावरण संरक्षण की बात हो रही है, तो पांड्रासाली मॉडल एक उदाहरण है कि बदलाव ऊपर से नहीं, नीचे से आता है—समुदायों से, गांवों से, बच्चों से।
यह कार्यक्रम एक 'पायलट प्रोजेक्ट' से कहीं अधिक था। यह एक संभावना का बीज था—जिसे यदि सही तरह से सींचा जाए, तो यह देश भर के गांवों में पर्यावरणीय चेतना के हरे भरे वृक्ष बन सकते हैं।
पांड्रासाली की यह कहानी हमें सिखाती है कि प्रकृति के साथ जुड़ाव केवल संरक्षण की बात नहीं है; यह संस्कृति, शिक्षा और अस्तित्व की बात है।
निदेशक: रंजन साव | मार्गस्था रिसर्च फाउंडेशन
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