अनंत चतुर्दशी क्या है ? हम इसे क्यूँ मनाते है पर विशेष



अनंत चतुर्दशी पर विशेष।

Sahibnganj News : अनंत का मतलब होता है," जिसकी गिनती न की जा सके," ब्रह्मांड में अनंत सिर्फ विष्णु रूप ही हैं। अनंत चतुर्दशी पर भगवान विष्णु के अनंत अवतारों का पूजन किया जाता है, इसीलिए इसे अनंत चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है।

इस व्रत को करने से व्यक्ति को सैकड़ों गुना ज्यादा शुभ फलों की प्राप्ति होती है। इस साल अनंत चतुर्दशी एक सितंबर को मनाई जा रही है। अनंत चतुर्दशी का पर्व भादो  मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। यह दिन भगवान विष्णु को समर्पित है।

अनंत चतुर्दशी क्या है ? हम इसे क्यूँ मनाते है पर विशेष

मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने, और भगवान विष्णु की पूजा करने से, सभी प्रकार की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस पर्व को अनंत चौदस के नाम से भी जाना जाता है। आज के दिन ही भगवान गणेश जी का विसर्जन होता है और आज से ही पितृपक्ष की शुरुआत भी होती है।

अनंत चतुर्दशी का व्रत सर्वप्रथम पांडवों द्वारा रखा गया था। जिसके बारे में एक कथा मिलती है ।जब दुर्योधन पांडवों से मिलने गया तो, माया महल को देखकर धोखा खा गया। माया के कारण भूमि ,मानो जल के समान प्रतीत होती थी, और जल भूमि के समान।

दुर्योधन ने भूमि को जल समझकर अपने वस्त्र ऊपर कर लिए, परंतु जल को भूमि समझकर वह तालाब में गिर गए। इस पर द्रौपदी ने उपहास करते हुए कहा था "अंधे का पुत्र अंधा" इसी बात का प्रतिशोध लेने के लिए दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि के साथ मिलकर, षड्यंत्र रचा, और पांडवों को जुए में पराजित करके, भरी सभा में द्रौपदी का अपमान किया।

पांडवों को बारह वर्ष वनवास, और एक वर्ष अज्ञातवास मिली। अपनी प्रतिज्ञा को पूरी निष्पक्ष और निष्ठा के साथ, पालन करते हुए पांडव अनेक कष्टों को सहते हुए वन में रहने लगे । तब धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से इस दुख को दूर करने का उपाय पूछा, इस पर कृष्ण जी ने युधिष्ठिर से कहा कि, जुआ खेलने के कारण लक्ष्मी तुमसे रूठ गई है।

तुम अनंत चतुर्दशी के दिन व्रत रखो, इससे तुम्हारा खोया हुआ राजपाट तुम्हें दोबारा वापस मिल जाएगा। तब इस व्रत का महत्व समझते हुए श्री कृष्ण जी ने उन्हें कथा सुनाई। बहुत समय पहले एक तपस्वी ब्राह्मण था।  जिसका नाम सुमंत और पत्नी का नाम दीक्षा था।

उनकी सुशीला नाम की एक सुंदर और धर्म परायण कन्या थी। जब सुशीला कुछ बड़ी हुई तो उसकी मां दीक्षा की मृत्यु हो गई। तब उनके पिता सुमंत ने कर्कशा नाम की स्त्री से विवाह कर लिया। जब सुमंत ने अपनी पुत्री का विवाह ऋषि कौंडिण्य के साथ किया तो सौतेली माता ने विदाई में ईंट और पत्थर के टुकड़े बांध कर दे दिए।

ऋषि कौंडिन्य दुखी मन के साथ सुशीला को विदा कराकर अपने साथ लेकर चल दिए। तब सुशीला ने देखा कि संध्या के समय नदी के तट पर, सुंदर वस्त्र धारण करके स्त्रियां, किसी देवता का पूजन कर रही हैं ।सुशीला ने जिज्ञासा बस उनसे पूछा तो उन्होंने अनंत व्रत की महत्ता सुनाई।

इसके पश्चात सुशीला ने भी यह व्रत किया, और पूजा करके चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कोंडिन्य को सारी बातें बताई। ऋषि ने उस धागे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया ।इससे भगवान अनंत का अपमान हुआ, परिणाम स्वरुप उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई और वे दरिद्र हो गए।

एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने दुख का कारण बताते हुए कहा कि ,आपने अनंत भगवान का डोरा जलाया है, इसलिए भगवान अनंत क्रुद्ध हो गए हैं। ऋषि अनंत डोर को प्राप्त करने के लिए वन चले गए।

वन में कई सालों की कठिन तपस्या करने के बाद वे एक दिन भूमि पर गिर पड़े, तो भगवान अनंत ने उन्हें दर्शन दिए, और कहा कि तुमने मेरा अपमान किया था, जिसके कारण तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ा। लेकिन अब तुमने पश्चाताप कर लिया है।

तुम घर जाकर अनंत व्रत को विधिपूर्वक संपन्न करो ।चौदह वर्षों तक व्रत करने से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे, और तुम दोबारा संपन्न हो जाओगे । ऋषि कौंडिन्य ने विधिपूर्वक व्रत किया, और उन्हें सारे कष्टों से मुक्ति प्राप्त हुई। तब से ही यह व्रत सारे संसार में मनाया जाने लगा।

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