"मां धरा.. तो पिता आसमान है"... प्रोफेसर सुबोध झा की रचित कविता
पिता ही पालक,पिता ही सेवक;
पिता बस हौसलों की उड़ान है;
पिता अंगरक्षक, पिता संरक्षक;
पिता पारिवारिक भगवान है।
माँ धरा तो पिता आसमान है,
पिता ही हमारा स्वाभिमान है,
पिता बहुगुणी कर्त्तव्यपरायण,
पिता से ही हमारी पहचान है।
जाने बस सकल जहान है,
पिता ही सबसे महान है,
गर माता देवी स्वरूपिणी,
तो पिता बस देव समान है।
पिता होते हैं घर का दरबारी,
सदा करते हैं घर की पहरेदारी,
पिता हमारे सपनों का सौदागर,
उठाते घर की सारी जिम्मेदारी।
पिता जीवन गाड़ी का सारथी है,
समस्याओं से लड़ता महारथी है,
सदा संघर्षरत है पिता का जीवन,
पिता ही परिवार का भागीरथी है।
जब भी मन अपना हो आहत,
कुछ पुरी करने की हो चाहत,
कहीं नहीं बस पिता को देखो,
वही दिलाते हैं हमको राहत।
पिता से ही हमारी शक्ति है,
पिता से करनी बस भक्ति है,
पिता एक अनमोल रत्न है,
जीवन की एक बड़ी हस्ती है।
पिता से ही बस हिम्मत है,
पिता से हमारी किस्मत है,
पिता से ही रहती है उम्मीद,
पिता सबसे बड़ी दौलत है।
पिता के जूते जब पैरों में आते,
सभी कहते वो मित्र बन जाते।
एक पिता की अजीब कहानी है,
वही सुबोध है सबको सुनाते।
अंत में आया हूँ कुछ बताने को,
कुछ बातें सुनाता हूं जमाने को,
जीवन दिया पिता ने अब हुए लाचार,
समय आया है बस तुम्हें चुकाने को।
सुबोध झा
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