शख्सियत : "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी" – सुभद्रा कुमारी चौहान
देश की आजादी से बहुत पहले, जब लड़कियों को घर की चारदीवारी में सिमटकर रहने की नसीहत दी जाती थी, तब इलाहाबाद की एक नन्ही-सी बच्ची ने कलम उठाई। उसने ऐसे शब्द रचे, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए हौसले की पहचान बन गए।
नाम था सुभद्रा कुमारी चौहान। वे एक कवयित्री ही नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी भी थी, उनकी कविताएँ सिर्फ़ कागज़ पर नहीं थीं, बल्कि संघर्ष की मशाल बनकर क्रांतिकारियों को जोश और हौसला देती थीं। 1904 में जन्मी इस साहसी लड़की ने बचपन से ही समाज की रूढ़ियों को चुनौती दी।
घर में ही छुआछूत देखा, तो आवाज़ उठाई। अपने ही परिवार में बराबरी की अलख जगाई। 15 साल की उम्र में जब उनकी शादी लक्ष्मण सिंह चौहान से हुई, तो उन्होंने घूंघट को अलविदा कह दिया। ऐसी हिम्मत, उस वक्त शायद ही किसी ने दिखाई थी।
पर उनकी लड़ाई सिर्फ़ इतनी नहीं थी। वो गांधीजी के नेतृत्व में आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा बनीं, सड़कों पर उतरीं, तिरंगा फहराया और गर्भवती होने के बावजूद जेल जाने से पीछे नहीं हटीं। लेकिन उनका सबसे बड़ा हथियार था—उनकी लेखनी। उन्होंने करीब 100 कविताएँ और 50 कहानियाँ लिखी, जिसमें जातिगत भेदभाव, महिलाओं के अधिकार और ब्रिटिश शासन के अन्याय के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई।
और फिर आई वो कविता, जिसने उन्हें अमर बना दिया—"झाँसी की रानी" ये पंक्तियाँ क्रांतिकारियों के नारों में तब्दील हो गई, हर स्वतंत्रता सेनानी के दिल में गूँजने लगीं। लेकिन सुभद्रा सिर्फ़ आज़ादी की लड़ाई तक सीमित नहीं थीं। उन्होंने बेटी की अंतरजातीय शादी का समर्थन किया, बंटवारे के बाद सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए लड़ीं और समाज को आगे बढ़ने की राह दिखाई।
1948 में, गांधीजी की हत्या के एक महीने बाद, मात्र 44 साल की उम्र में एक सड़क दुर्घटना में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। पर उनकी लिखी पंक्तियाँ, उनका हौसला और उनकी विरासत आज भी जिंदा है। वो सिर्फ़ एक कवयित्री नहीं थीं, क्रांति की आवाज़ थीं, बदलाव की अलख थीं, और अपने दौर से बहुत आगे की सोच रखने वाली एक निडर महिला थीं
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