10 दिन में तालिबान ने अफगानिस्तान पर कंट्रोल कैसे कर लिया? अमेरिका के साथ किसने गेम किया
जब जो बाइडेन राष्ट्रपति बने थे, तब उनसे ये सवाल पूछा गया था कि अगर अमेरिका अफगानिस्तान को छोड़कर जाएगा तो तालिबान फौरन अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा।
इस पर जो बाइडेन ने जवाब दिया था कि तालिबान ऐसा नहीं कर पाएगा, क्योंकि तालिबान सिर्फ 75 हजार है और अमेरिका के द्वारा प्रशिक्षित अफगान फोर्स 3 लाख 50 हजार है।
साल 1994 में कंधार में तालिबान की स्थापना मुल्ला उमर ने की थी और बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि मुल्ला उमर ने हनफी इस्लाम की पढ़ाई सहारनपुर के देवबंद (उत्तर प्रदेश) से ही की थी।
लेकिन मुल्ला उमर को पैदा करने वाला दारुल उलूम देवबंद आज भी बहुत आराम से अपनी कट्टरपंथी सोच का प्रचार - प्रसार पूरी दुनिया में कर रहा है।
1994 में तालिबान की स्थापना हुई और 1996 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया। पहली बार तालिबान ने काबुल पर कब्जा जमाने में 2 साल का वक्त लगाया था, लेकिन दूसरी बार तालिबान ने सिर्फ 10 दिन के अंदर ही काबुल पर कंट्रोल कर लिया।
इसकी वजह समझना जरूरी है। अफगानिस्तान में तालिबान की आसान विजय के 4 प्रमुख कारण हैं। पहला पश्तून कबीले की आपसी एकता, दूसरा तालिबान की अफगान फोर्स से कूटनीतिक वार्ता,
तीसरा तालिबान के हाथ लगे अफगान फोर्स के अमेरिकी हथियार और चौथा तालिबान के पहले शासन कर रही अफगान सरकार के अंदर मौजूद करप्शन। तालिबान के पास सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट है... पश्तून कबीलों की एकता।
ट्राइबल सिस्टम अफगानिस्तान का कल्चर है और अफगानिस्तान में एक ही ट्राइब के लोग एक दूसरे से संघर्ष करने से बचते हैं । अफगानिस्तान की जिस फोर्स को अमेरिका ने ट्रेनिंग दी थी,
उसमें भी 30 प्रतिशत से ज्यादा पश्तून ट्राइब से आते हैं और अफगानी फोर्स के पश्तून ट्राइब के सैनिकों के अंदर तालिबान के लिए सहानुभूति थी, क्योंकि तालिबान भी पश्तून ही हैं।
अमेरिका ने पश्तूनों के खिलाफ पश्तूनों को खड़ा करने की कोशिश की जो कामयाब साबित नहीं हो पाई। हैरानी की बात ये है कि अफगानिस्तान के शहर जलालाबाद को तालिबान ने बिना गोली चलाए कब्जा कर लिया।
ठीक इसी तरह बातचीत से तालिबान ने अफगानिस्तान के मजार - ए - शरीफ इलाके पर भी कब्जा कर लिया। तालिबान ने अफगानिस्तान की फोर्स को ये भरोसा दिलाया कि अगर वो सरेंडर कर देंगे तो तालिबान उनको माफ कर देगा और सुरक्षित जाने देगा।
इस भरोसे के बाद अफगान फोर्स ने बहुत आसानी से तालिबान के सामने सरेंडर कर दिया। इस तरह वो मजार-ए- शरीफ जहां साल 1996 के बाद तालिबान के खिलाफ विद्रोह हुआ था बहुत आसानी से तालिबान के हाथ लग गया।
जिसको दिखाने के बाद अफगान फोर्स के सैनिक बिना किसी संघर्ष के तालिबानी चेक पोस्ट से बाहर निकल गए। इस तरह कंधार भी बहुत आसानी से तालिबान के कब्जे में आ गया।
अमेरिका जब अफगानिस्तान से बाहर निकला तो उसने अफगान फोर्स को अरबों रुपए के अत्याधुनिक हथियार और फाइटर जेट्स सौंपे थे। लेकिन सरेंडर करने के साथ ही अफगान फोर्स के पास मौजूद ये अमेरिकी हथियार भी तालिबान के हाथ लग गए,
जिससे तालिबान का काम और आसान हो गया। बाकी रही सही कसर अफगानिस्तान सरकार के अंदर फैले हुए भ्रष्टाचार ने पूरी कर दी। अफगानिस्तान की भ्रष्ट सरकार ने अमेरिका से मिलने वाली मदद का इस्तेमाल जनता से ज्यादा खुद पर किया।
ट्रिलियंस ऑफ डॉलर्स की मदद के बाद भी अफगानिस्तान के लोग आज भी गरीब हैं और तालिबान ने अफगानियों की इस मजबूरी का भी इस्तेमाल कर लिया।
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