द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर हेमंत सोरेन ने एक बार फिर निशाना साधा है
द्रौपदी मुर्मू निर्वाचित होती हैं तो वो भारत की राष्ट्रपति बनने वाली आदिवासी समुदाय की पहली महिला होंगी। एनडीए के पास इस चुनाव को जीतने को लेकर पर्याप्त संख्याबल है। संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा इस चुनाव में अब और कमजोर हो गए हैं। यशवंत सिन्हा केंद्रीय मंत्री भी रहे हैं। वो कुछ साल पहले तक लंबे समय तक भाजपा में थे। भाजपा के द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा के बाद समीकरण बदल गए, खासकर उन राज्यों में जहां जनजातीय आबादी महत्वपूर्ण है। दूसरी तरफ यशवंत सिन्हा का नाम आगे बढ़ाने में सहमति देने के बाद खुद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी बेलाग लहजे मे कहा है कि अगर इस महिला के नाम का ऐलान भाजपा पहले कर देती तो शायद राष्ट्रपति का सर्वसम्मत चुनाव भी हो सकता था। अब इस कड़ी में शिबू सोरेन के हस्ताक्षर से वह पत्र जारी हुआ था, जिसमें झामुमो द्वारा द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की बात कही गई है। पार्टी की बैठक में भले ही इसके लिए शिबू सोरेन को अधिकृत कर दिया गया था, लेकिन सच्चाई से सभी वाकिफ थे कि अंतिम फैसला हेमंत सोरेन ही लेंगे। अब इस फैसले के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा उन गैर-एनडीए दलों की सूची में शामिल हो गया है, जिन्होंने 18 जुलाई को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा की है।
झामुमो ने उनकी आदिवासी पहचान का हवाला देते हुए समर्थन का ऐलान किया है। पार्टी के प्रमुख शिबू सोरेन ने कहा कि उनकी पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में राजग उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करेगी। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में, झामुमो - कांग्रेस के साथ साझेदारी में झारखंड में सरकार चलाती है, जहां 26 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। द्रौपदी मुर्मू ओडिशा की रहने वाली हैं, वो झारखंड की राज्यपाल भी रह चुकी हैं। द्रौपदी मुर्मू निर्वाचित होती हैं तो वो भारत की राष्ट्रपति बनने वाली आदिवासी समुदाय की पहली महिला होंगी। एनडीए के पास इस चुनाव को जीतने को लेकर पर्याप्त संख्याबल है। वहीं भाजपा ने पहले से ही रिजल्ट के दिन 21 जुलाई को जश्न मनाने की तैयारी कर ली है। वैसे इससे पूर्व शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट भी ऐसा ही फैसला ले चुका है। इसलिए चुनावी तस्वीर लगभग साफ हो गई है। भाजपा को झारखंड में झामुमो के फैसले से निश्चित तौर पर प्रसन्नता हुई होगी और कांग्रेस को निराशा। लेकिन झारखंड की राजनीति सिर्फ इसी दायरे में नहीं है, इस बात को भी अच्छी तरह समझ लेना होगा।
एक संथाली महिला का समर्थन कर हेमंत सोरेन ने झारखंड के संथाल परगना के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम के इलाकों में भी खुद के कद को राजनीतिक तौर पर बढ़ा लिया है, इस बात को भी समझने की आवश्यकता है। इस लिहाज से संथाल राजनीति में हेमंत सोरेन ने फिर से खुद को भाजपा से बड़े कद का नेता स्थापित करने में सफलता पाई है। यह सिर्फ एक तरफ की बात है। दूसरी तरफ कांग्रेस के असंतुष्ट गुट को भी इसके जरिए हेमंत ने वह संकेत देने में कामयाबी पाई है जो उन्हें फिर से सरकार को अस्थिर करने की चाल से रोक सकती है। यह जगजाहिर है कि कांग्रेस में नौ नाराज विधायक हैं और शेष तीन की संख्या पूरी नहीं होने की वजह से यह असंतुष्ट लोग चुप्पी साधकर बैठे हैं। यूं तो झामुमो में भी असंतुष्ट विधायक हैं लेकिन नये दलबदल कानून के तहत उनकी संख्या इतनी नहीं है कि वे सरकार की चुनौती दे सकें। ऐसे में हेमंत ने अपनी ही सरकार को समर्थन देने वाले दलों के उन असंतुष्टों को भी यह संकेत दे दिया है कि बाजी कभी भी पलटी जा सकती है। भाजपा ने भी झामुमो के इस फैसले का स्वागत किया है। लेकिन अंदरखाने में भाजपा के लोग भी इस बात को अच्छी तरह महसूस कर रहे होंगे कि हेमंत ने आदिवासी राजनीति में उन्हें पटखनी भी दे दी है। साथ ही इस एक फैसले के पूर्व देवघर में जिस अंदाज में हेमंत सोरेन ने भाषण दिया था, उससे भी स्पष्ट हो गया है कि प्रदेश स्तर से उसके खिलाफ जाने वाली शिकायतों को कम से कम नरेंद्र मोदी और अमित शाह के स्तर पर कोई अधिक वजन नहीं मिलेगा। अब इन दो स्थानों से तरजीह नहीं मिलने के बाद भाजपा का कोई और दरवाजा नहीं हैं जहां हेमंत विरोध भाजपा नेता अपनी बात रख सकें या उन बातों का कोई असर हो सके। इसलिए यह माना जा सकता है कि इस एक फैसले से हेमंत से सत्ता और विपक्ष दोनों में शामिल दलों को स्पष्ट संकेत देने में सफलता पाई है।
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