"यादों के झरोखों से" फिल्मों की मुग़ल-ए-आज़म : दुर्गा खोटे
मनोरंजन
तक़रीबन 50 वर्षों तक हिंदी और मराठी सिनेमा के साथ - साथ थिएटर में भी सक्रिय रहीं दुर्गा खोटे भारतीय सिनेमा की उन पहली महिलाओं में से एक हैं,
जिन्होंने 'फिल्म उद्योग' में प्रवेश करने के लिए "सामाजिक वर्जनाओं" को तोड़ा। अपने एक सहस्राब्दी अंक में 'इंडिया टुडे' मैगजीन ने उन्हें "भारत की उन 100 शख़्सियतों में शामिल किया है, जिन्होंने भारतीय सिनेमा को आकार प्रदान किया।" यही नहीं हिंदी सिनेमा की माँ की दस 'शीर्ष भूमिकाओं' भी उनका शुमार होता है।
दुर्गा खोटे का जन्म 'विटा लाड' के रूप में कंदेवाड़ी-गोवा के एक संयुक्त परिवार में हुआ था, जहां 'कोंकणी' भाषा बोली जाती थी। उनके पिता का नाम पांडुरंग शामराव लाड था और उनकी माँ का नाम मंजुलाबाई था।उन्होंने 'कैथेड्रल हाई स्कूल' और 'सेंट जेवियर्स कॉलेज' में शिक्षा प्राप्त की, वहीं से उन्होंने बी.ए. की डिग्री भी हासिल की।
कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही उनकी शादी कर दी गई थी। पति का नाम विश्वनाथ खोटे था। विश्वनाथ एक मैकेनिकल इंजीनियर थे। उनका परिवार खाता पीता उच्च मध्यम वर्गीय परिवार था। दंपति एक सामंजस्यपूर्ण और सुखी जीवन बिता रहे थे, और शादी को दो बेटों का आशीर्वाद भी उन्हें मिला था, लेकिन दुर्भाग्य से विश्वनाथ खोटे की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई थी।
तब दुर्गा मुश्किल से 20 वर्ष की थीं। उन्होंने बेटों के साथ ससुराल में रहना जारी रखा। लेकिन ये आश्रित स्थिति तब असहज हो गई, जब उनके ससुर भी चल बसे। बच्चों की परवरिश और जीवन यापन के सवाल मुँह बाये खड़े हो गए। उन्होने अपने दोनों बेटों, बकुल और हरिन को पालने के लिए ट्यूशंस कीं, पर आर्थिक स्थिति बेहतर न हुई। तब उन्होंने फ़िल्मों में अभिनय करने का फ़ैसला किया, जो उन दिनों एक बदनाम पेशे के रूप में उपहासित था और महिलाओं के रोल भी पुरुष किया करते थे।
दुर्गा खोटे ने 'प्रभात फिल्म कंपनी' द्वारा 1931 की मूक-फिल्म 'फ़रेबी-जाल' से एक छोटी भूमिका में शुरुआत की। उसके बाद "मायामछिंद्र" (1932) में रिलीज हुई। 1932 ही मराठी और हिन्दी में बनने वाली फिल्म 'अयोध्याचा राजा" में उन्होंने 'रानी तारामती' की मुख्य भूमिका निभाई। प्रभात फिल्म की ये पहली सिनेमा थी, जो खूब चली। इस फिल्म से दुर्गा पूरी तरह स्थापित हो गईं थीं। इसी बीच प्रभात फिल्म कंपनी के साथ मिलकर काम करने के बावजूद, वह "स्टूडियो सिस्टम" से अलग हो गई और बन गई "फ्रीलांस" कलाकार।
1936 में उन्होंने फ़िल्म 'अमर ज्योति' में 'सौदामिनी' की भूमिका निभाई, जो उनकी सबसे यादगार भूमिकाओं में से एक मानी जाती है। उनके द्वारा निभाए गए हर किरदार उनके शाही व्यक्तित्व की गवाही देते थे। चंद्र मोहन, सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गज अभिनेताओं के सामने भी उनकी 'स्क्रीन-प्रजेन्स' कमाल की थी। 1937 में उन्होंने 'साथी' नामक एक फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया, जिससे वह भारतीय सिनेमा में इस भूमिका में क़दम रखने वाली पहली महिलाओं में से एक बन गईं।
आचार्य अत्रे की फिल्म 'पयाची दासी' (मराठी) और 'चरण की दासी' (हिंदी) (1941) और विजय भट्ट की क्लासिक 'भरत मिलाप' (1942) में पुरस्कार विजेता प्रदर्शनों के साथ, 40 के दशक ने उनके लिए बड़े पैमाने पर शुरुआत की। दोनों फिल्मों के लिए उन्हें "बीएफजेए बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड" मिला। लगातार दो वर्षों तक उन्होंने 'बेस्ट एक्ट्रेस' का अवार्ड जीता था। दुर्गा खोटे कई वर्षों तक खासकर मुंबई के मराठी थिएटर सर्किट में भी सक्रिय रहीं।
उन्होंने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और 'मुंबई मराठी साहित्य संघ' के लिए कई नाटकों में काम भी किया। 1954 में उन्होंने वी.वी. शिरवाडकर के मैकबेथ के नाटक-' 'रॉयल क्राउन" के बेहद लोकप्रिय मराठी रूपांतरण 'राजमुकुट' में 'लेडी मैकबेथ' की शानदार भूमिका निभाई। दुर्गा खोटे ने एक लंबे करियर में न केवल कई तरह की भूमिकाएँ निभाईं, बल्कि शोभना समर्थ जैसी भारतीय अभिनेत्रियों की कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत रहीं। बाद के वर्षों के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण चरित्र - भूमिकाएँ भी निभाईं।
1960 में मुगल - ए - आज़म में अपने पति के प्रति कर्तव्य और अपने बेटे के प्रति प्रेम के बीच फंसी अकबर की रानी जोधाबाई के उनके किरदार को भला कौन भुला सकता है? 1963 में मर्चेंट आइवरी की पहली फिल्म "द हाउसहोल्डर" भी उनके अभिनय का 'मिल का पत्थर' थी। फ़िल्म बॉबी (1973) में नायिका की दादी, अभिमान (1973) में नायक की चाची, बिदाई (1974) में माँ की बहुत ही संवेदनशील भूमिका उनकी बाद के वर्षों की यादगार भूमिकाएं हैं।
उनकी अंतिम 'अविस्मरणीय भूमिका' सुभाष घई की फिल्म कर्ज़ (1980) में थी, जहाँ उन्होंने राज किरण की माँ की भूमिका निभाई और बाद में, ऋषि कपूर की दादी की। दुर्गा खोटे ने अपने करियर में 200 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। 1980 के दशक तक उन्होंने 'फैक्ट फिल्म्स' और बाद में 'दुर्गा खोटे प्रोडक्शंस' की स्थापना करके लघु और विज्ञापन फिल्मों और वृत्तचित्रों का निर्माण किया।
दूरदर्शन पर टीवी श्रृंखला 'वागले की दुनिया' उन्ही का निर्माण था। पति की मौत के बाद उन्होंने अपने दोनों बेटों की अच्छी तरह परवरिश की। दोनों जीवन में अच्छी तरह से सेटल हो गए। 40 के दशक में ही अपने बेटे हरिन की मौत का सदमा उठाना पड़ा। हरिन की शादी विजया जयवंत से हुई थी और वे दो बेटों के माता-पिता थे। हरिन की विधवा ने फारुख मेहता नाम के एक पारसी व्यक्ति से शादी की और फिल्म निर्माता विजया मेहता के रूप में प्रसिद्ध हुईं।
दुर्गा खोटे के पोते (बकुल और हरिन के बच्चे) रवि, फिल्म निर्माता हैं, पोती अंजलि खोटे, अभिनेत्री, और पोते देवेन खोटे, एक सफल निर्माता और यूटीवी के सह - संस्थापकों में से एक हैं। देवेन खोटे ने फिल्म का निर्देशन भी किया है। वे 'जोधा अकबर' और 'लाइफ इन ए मेट्रो' जैसी फिल्मों के निर्माण के लिए भी जाने जाते हैं।
दुर्गा खोटे के बहनोई नंदू खोटे (विश्वनाथ के भाई), एक प्रसिद्ध मंच और मूक फिल्म अभिनेता थे। नंदू के दो बच्चे भी फिल्म इंडस्ट्री में अभिनेता बने। उनके बेटे विजू खोटे एक अभिनेता थे, जिन्हें शोले (1975) में "कालिया" की भूमिका के लिए जाना जाता है।नंदू की बेटी अभिनेत्री शुभा खोटे हैं, जिन्होंने फ़िल्म 'सीमा' (1955) से शुरुआत की और चरित्र भूमिकाओं में जाने से पहले कई फिल्मों में नायिका के रूप में काम किया।
फिर बाद में वह मराठी फिल्मों का निर्देशन एवं निर्माण करने लगीं और 90 के दशक में टेलीविजन में भी प्रवेश किया। शुभा की बेटी भावना बलसावर भी एक पुरस्कार विजेता टीवी अभिनेत्री हैं, जो घर बसाने और परिवार पालने का फैसला करने से पहले दूरदर्शन के 'देख भाई देख' और 'ज़बान संभाल' के जैसे टीवी सीरियल्स में दिखाई दीं थीं।
इस प्रकार अभिनय का पेशा, जो दुर्गा खोटे ने अपने परिवार में शुरू किया था, उसको उनके दिवंगत पति के परिवार ने पूरी तरह से अपना लिया है। दुर्गा खोटे जी की 118वीं सालगिरह पर फ़िल्म उद्योग में उनके महत्वपूर्ण योगदान, उनकी बहुमुखी प्रतिभा और उनके साहस को हम सलाम करते हैं।
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