वीर आल्हा-ऊदल की अनकही कहानी, जिनकी वीरता के किस्से आज भी बुंदेलखंड समेत उत्तर-प्रदेश, बिहार, झारखंड के एक बड़े हिस्से में गाए और सुने जाते हैं


भारत के इतिहास के पन्नों में अनेक वीरों के शौर्य और साहस की गाथाएं मौजूद हैं

वीर आल्हा-ऊदल की अनकही कहानी, जिनकी वीरता के किस्से आज भी बुंदेलखंड समेत उत्तर-प्रदेश, बिहार, झारखंड के एक बड़े हिस्से में गाए और सुने जाते हैं




महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई और छत्रपति शिवाजी आदि, ये ऐसे नाम हैं, जिन्होंने अपनी वीरता और युद्ध कौशल से सभी को चौंका दिया। ऐसे ही दो वीर योद्धा हुए बुंदेलखंड के आल्हा और ऊदल, इन वीरों की वीरता की जिनती भी प्रशंसा की जाए, वो कम है। जिनकी अद्भुत कहानी हम इस लेख में जानेंगे। क्या आप जानते हैं कि आल्हा और ऊदल कौन थे? क्या आप जानते हैं कि आल्हा और ऊदल ने किस बड़े योद्धा को हराया था? आइए इन सभी प्रश्नों के उत्तर जानते हैं।

दो पराक्रमी योद्धा भाई

12वीं सदी में बुदेलखंड के महोबा के दशरथपुरवा गांव में दो ऐसे भाइयों का जन्म हुआ था, जो बचपन से ही बहुत वीर और पराक्रमी थे। पराक्रमी होने के साथ-साथ इनको शास्त्रों का ज्ञान भी था। इन दोनों भाइयों के पराक्रम को देखते हुए इन्हें युधिष्ठिर और भीम का अवतार भी बताया जाता है।    

आल्हा-ऊदल की गाथा उत्तर प्रदेश के एक बड़े हिस्से जैसे बुंदेलखंड, कन्नौज और कानपुर आदि तक में मशहूर है। बुंदेली इतिहास में तो आल्हा-ऊदल का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है, यहां तक कि बुंदेलखंड सहित बिहार, झारखंड में आज भी इनकी वीरगाथा गाई जाती है। दोनों को दसराज और दिवला का पुत्र भी माना जाता है। दसराज चंदेलवंशी राजा परमल के सेनापति थे।

आल्हा को मां शारदा का परमभक्त माना जाता है। साथ ही ऐसा भी कहा जाता है कि मां ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अमरता का वरदान दिया था। आज भी बैरागढ़ के मां शारदा के मंदिर को लेकर ऐसी मान्यता है कि वहां हर रात आल्हा, मां की आराधना करने के लिए आते हैं। रात को सफाई करने के बाद मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं, लेकिन सुबह जब ये कपाट खुलते हैं तो यहां पूजा करने के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।

ऊदल के सम्मान में

इतना ही नहीं, स्थानीय लोगों के अनुसार 800 साल बीत जाने के बाद भी महोबा के ऊदल चौक से ऊदल के सम्मान में लोग यहां घोड़े पर सवार होकर नहीं जाते हैं। यहां पर शादियों के समय में दूल्हे को घोड़े पर बैठाकर नहीं निकाला जाता है। कवि जागनिक की मशहूर कविता (आल्हा खंड) में इन दोनों के द्वारा लड़ी गई 52 लड़ाइयों का वर्णन है।

आल्हा और ऊदल दोनों का आखिरी युद्ध दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान के साथ हुआ था। 11वीं सदी में जब बुंदेलखंड को जीतने के इरादे से पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल शासन पर हमला किया था, तब उस समय महोबा, चंदेलों की राजधानी थी। बैरागढ़ की एक बड़ी लड़ाई में आल्हा के भाई ऊदल वीरगति को प्राप्त हो गए थे। इसके बाद आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान की सेना पर हमला बोल दिया था। 

करीब एक घंटे तक युद्ध लड़ने के बाद पृथ्वीराज चौहान और आल्हा रण में एक दूसरे के आमने-सामने आ गए थे। आल्हा ने अपने पराक्रम से पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया था। हालांकि ऐसा कहा जाता है कि अपने गुरु गोरखनाथ के आदेशानुसार आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया था। इसके बाद आल्हा संन्यास लेकर मां शारदा की भक्ति करने लगे थे।

आज भी गाई जाती है उनकी शौर्य गाथाएं

आज के समय में भी बुंदेलखंड सहित अन्य राज्यों के लोग आल्हा गीत गाते हैं। बुंदेली कवियों के द्वारा आल्हा के गीत भी बनाए गए हैं, जो सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव में गया जाता है- जैसे पानीदार यहां का पानी आग, यहां के पानी में शौर्य गाथा, आदि के रूप से गाया जाता है। 

आज भी वहां शाम को चौपालों पर लोग आल्हा के गीतों का आनंद उठाते हैं। महोबा में अधिकतर सामाजिक संस्कार आल्हा - ऊदल की कहानी के बिना पूर्ण ही नहीं माने जाते हैं। यहां पर बच्चों के नाम भी आल्हा खंड से लेकर रखे जाते हैं। पूरे महोबा और बुंदेलखंड में कई ऐसे स्थान हैं, जो दोनों योद्धाओं की याद दिलाते हैं। अगर आपको ये लेख पसंद आई हो तो अपने मित्रों को शेयर अवश्य करें।

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