इस्राइल हमले के बाद ग़ाज़ा के एक बच्‍चे की मार्मिक कविता



इस्राइल हमले के बाद ग़ाज़ा के एक बच्‍चे की मार्मिक कविता

बाबा! मैं दौड़ नहीं पा रहा हूँ।

ख़ून सनी मिट्टी से लथपथ

मेरे जूते बहुत भारी हो गये हैं।

मेरी आँखें अंधी होती जा रही हैं

आसमान से बरसती आग की चकाचौंध से।

बाबा! मेरे हाथ अभी पत्‍थर

बहुत दूर तक नहीं फेंक पाते

और मेरे पंख भी अभी बहुत छोटे हैं।

बाबा! गलियों में बिखरे मलबे के बीच

छुपम-छुपाई खेलते

कहाँ चले गये मेरे तीनों भाई?

और वे तीन छोटे-छोटे ताबूत उठाये

दोस्‍तों और पड़ोसियों के साथ तुम कहाँ गये थे?

मैं डर गया था बाबा कि तुम्‍हें

पकड़ लिया गया होगा

और कहीं किसी गुमनाम अँधेरी जगह में

बन्‍द कर दिया गया होगा

जैसा हुआ अहमद, माजिद और सफ़ी के

अब्‍बाओं के साथ।

मैं डर गया था बाबा कि

मुझे तुम्‍हारे बिना ही जीना पड़ेगा

जैसे मैं जीता हूँ अम्‍मी के बिना

उनके दुपट्टे के दूध सने साये और लोरियों की

यादों के साथ।

मैं नहीं जानता बाबा कि वे लोग

क्‍यों जला देते हैं जैतून के बागों को,

नहीं जानता कि हमारी बस्तियों का मलबा

हटाया क्‍यों नहीं गया अबतक

और नये घर बनाये क्‍यों नहीं गये अबतक!

बाबा! इस बहुत बड़ी दुनिया में

बहुत सारे बच्‍चे होंगे हमारे ही जैसे

और उनके भी वालिदैन होंगे।

जो उन्‍हें ढेरों प्‍यार देते होंगे।

बाबा! क्‍या कभी वे हमारे बारे में भी सोचते होंगे?

बाबा! मैं समन्‍दर किनारे जा रहा हूँ

फुटबाल खेलने।

अगर मुझे बहुत देर हो जाये

तो तुम लेने ज़रूर आ जाना।

तुम मुझे गोद में उठाकर लाना

और एक बड़े से ताबूत में सुलाना

ताकि मैं उसमें बड़ा होता रहूँ।

तुम मुझे अमन-चैन के दिनों का

एक पुरसुक़ून नग्‍़मा सुनाना,

जैतून के एक पौधे को दरख्‍़त बनते

देखते रहना

और धरती की गोद में

मेरे बड़े होने का इन्‍तज़ार करना



अनुवाद -- कविता कृष्णपल्लवी द्वारा

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