बचपन और जिम्मेदारियां | रचना - आरिफ अंसारी
बचपन और जिम्मेदारियां
जब मैं मैदान की तरफ निकला हाथ में बल्ला लिये
वो भी निकला था
मगर हाथ में खाली एक
थैला लिये
वो कोई मामूली थैला नहीं था,
इसी में उसका बचपन मरा था
खाली होने पर भी यह उसकी जिम्मेदारियों से भरा था
यह थैला उसके पिता व भाई की गैर-मौजूदगी बताता था
यह खाली थैला न जाने कितना कुछ समझाता था!
वो मेरी तरफ देख कर मन ही मन रोया होगा
शायद उसने अपने सपने में भी बल्ला खोया होगा
मानो वह आकर कहता कि काश उस पर भी कोई साया होता
तो उसने भी अपने सपने का बल्ला पाया होता।
मैं मंथर गति से मैदान की तरफ निकलना चाहा
उस मासूम की मजबूरियों के ख्याल को झटकना चाहा
पर मेरे पैर आगे बढ़ ना सके,
मेरे ख्यालात कुछ नया गढ़ ना सके।
मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहता था,
उसे बल्ले का खेल खेलाना चाहता था
पर उसके घर में रोटी की आशा वही था
अंधेरे में चिरागों की भाषा वही था।
एक बीमार मां और छोटी-छोटी बहनें उसके इंतज़ार में थे,
ठंडा पड़ा चूल्हा और खाली पतीले उसके इंतज़ार में थे।
उसका बचपन उसकी जिम्मेदारियों ने लील लिया था अभी
वरना कागज के नाव और बारिश के सपने वहां भी थे कभी
घर की जिम्मेदारियां हो सर पर तो बच्चे उम्र से पहले ही बड़े हो जाते हैं
फेंक कर अपने बल्ले को, जिम्मेदारियों का थैला लेकर खड़े हो जाते हैं।
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