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राजस्थान की "थेवा कलाकारी" : है 500 साल पुरानी, यूं ही तैयार नहीं होता आभूषण, अब गिनती के कारीगर ही बचे हैं


थेवा कलाकारी, सोने की मीनाकारी और पारदर्शी कांच के मेल से निर्मित आभूषण के निर्माण से सम्बद्ध है। 

राजस्थान की "थेवा कलाकारी" : है 500 साल पुरानी, यूं ही तैयार नहीं होता आभूषण, अब गिनती के कारीगर ही बचे हैं



माना जाता है कि यह कला करीब 500 साल पुरानी है। थेवा कलाकारी को गढ़ने वाले कारीगरों के परिवारों को प्रतापगढ़ के तत्कालीन शासकों ने जमीन दी थी। लेकिन ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार आभूषण की यह कला उसके काफी पहले से विद्यमान रही थी और वर्षों पहले से बंगाली कारीगर इसका निर्माण कर रहे थे।

कला के संरक्षण के लिए बंगाली परिवार आए राजस्थान

संरक्षण की खोज में ये बंगाली कारीगर राजस्थान आ गए, जहाँ उन्हें संरक्षण मिला और वे यहीं बस गए। इन कारीगरों ने वहाँ के कुछ स्थानीय लोगों को भी यह कला सिखाई और उसके बाद इसका विकास जिस रूप में हुआ, वह इतिहास बन गया। वक़्त के साथ थेवा कलाकारी एक खानदानी कारोबार बन गया और इसके कारीगरों ने आज भी इस कला को जीवित रखा है।

यूं ही तैयार नहीं होता आभूषण, बहुत मेहनत भरा है ये काम

इस कला में पहले काँच पर सोने की बहुत पतली शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, 'जिसे थारणा' कहा जाता है। दूसरे चरण में काँच को कसने के लिए चाँदी के बारीक तार से फ्रेम बनाया जाता है, जिसे 'वाडा' कहा जाता है। इसके बाद इसे तेज आग में तपाया जाता है। जिसके बाद शीशे पर सोने की कलाकृति और खूबसूरत डिजाइन उभर कर एक नायाब और लाजवाब आभूषण बनता है।
थेवा कला के गले के आभूषण, कान की बालियाँ, ब्रोच, अंगूठियाँ, माँगटीके आदि बनाए जाते हैं।

सभी उम्र के लोगों की है पहली पसंद, गिने चुने परिवार ही बचे कारीगरी में

इस कला को जानने वाले, अब गिने - चुने परिवार ही बचे हैं। ये परिवार राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में रहने वाले राजसोनी घराने के हैं, जिन्हें इस अनूठी कला के लिए कई अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं।
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