भूसा रखने की जगह यानी भुसवल


गेंहू की फसल काटने और मंडाई करने में अधिक समय नही लगता है। ज्यादा मेहनत और समय तो भूसा सहेजने में लगता है। सबसे पहले भुसवल बनाया जाता है। अरहर के डंठल, सरपत, बांस की पतली–पतली बल्लियों के सहयोग से अरहर की पतली कौची से बांध कर भुसवल छाया जाता है,

भूसा रखने की जगह यानी भुसवल

फिर कई लोग मिलकर उसे गोल आकार में मोड़ते हैं और बांस के बड़े–बड़े खूंटे से उसे खड़े रखने में मदद दी जाती है। फिर उसमें खांची और भूसाही में भर कर भूसा डाला जाता है। जब भूसा भर जाता है, तब इसकी गोल सी टोपी बनाई जाती है और फिर उसके उपर रखते हैं। 

इन दोनों काम को करने के लिए कई लोगों की मदद लेनी पड़ती है। इसलिए गांव के लोग मिल जुलकर भुसवल बनाने और ढक्कन रखवाने में मदद करते हैं। जरूरत पड़ने पर सब लोग एक दूसरे की मदद करते हैं।भुसवल के नीचे की तरफ थोडा सा कट लगाया जाता है, जहां से पशुओं को खिलाने के लिए भूसा निकाला जाता है।

अब तो भुसवल कम लोग ही बनाते हैं। अब किसी कमरे में भूसा भर देते हैं। ये भूसाघर सिर्फ़ भूसाघर नही होता है। अपितु उसमें ज़रूरत से अधिक गेहूं के बोरे, गुड़ की बोरी, नमक की बोरी भी रख दी जाती है, ताकी उनमें कीड़े, सीलन इत्यादि न लगे। बच्चों के लिए आम, बड़हर, शरीफा जैसे फलों को पकाने और छिपाने की भी जगह भी यही होती थी।

साहिबगंज से संजय कुमार धीरज

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