सूर्यषष्ठी अर्थात छठ महोत्सव क्यों मनाते हैं : इससे क्या लाभ होता है और ये कैसे करते हैं ? जानिए विस्तार से
भारत देश की अनगिनत विशेषताएं हैं। उनमें से एक है, पर्व या त्यौहार। यहां प्रतिदिन, प्रतिमास कोई न कोई पर्व अवश्य ही मनाया जाता है। इसके लिए विशेषतः ‘कार्तिक मास’ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। हमारी परंपराओं की जड़ें बहुत गहरी हैं, क्योंकि उन सभी का मूल स्त्रोत पुराणों में एवं प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथो में, हमारे ऋषि-मुनियों के उपदेश में मिलता है। उन्हीं त्योहारों में एक है ‘सूर्यषष्ठी’ अर्थात् छठ महोत्सव।
छठ व्रत में भगवान् सूर्यदेव की पूजा की जाती है। जिन्हें आरोग्य का रक्षक माना जाता है। ‘आरोग्यं भास्करादिच्छेत’ यह वचन प्रसिद्ध है। इसे आज का विज्ञान भी मान्यता देता है। इससे हमें यह ज्ञात होता है कि हमारे ऋषि-मुनि कितने उच्चकोटि के वैज्ञानिक थे।
आइए, इस पावन पर्व पर भगवान् सूर्यदेव के साथ-साथ हमारे पूर्वज एवं उन ऋषि - मुनियों के श्रीचरणों में कृतज्ञता पूर्वक शरणागत भाव से कोटि-कोटि नमन करते हुए प्रार्थना करें कि, उन्होंने अपने जीवन में अनगिणत प्रयोग करके, जो सत्य एवं सर्वोत्तम ज्ञान हमें दिया है, उनके बताए मार्ग पर चलकर हमें अपने जीवन को सार्थक करने एवं अन्यों को भी इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने का बल वे हमें प्रदान करें।
छठपर्व यूपी, बिहार एवं झारखंड में सबसे अधिक प्रचलित और लोकप्रिय धार्मिक अनुष्ठान के रूप में जाना जाता है। इस अनुष्ठान को वर्ष में दो बार-चैत्र तथा कार्तिक मास में संपन्न किया जाता है । दोनों ही मासों में शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि को सायंकाल अस्ताचलगामी सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पण करते हैं और सप्तमी तिथि को प्रातःकाल उदयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पण किया जाता है। छठपर्व का सबसे अधिक महत्त्व छठ पूजा की पवित्रता में है।
छठ पर्व को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो षष्ठी तिथि (छठ) को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें (Ultra Violet Rays) पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। इस कारण इसके सम्भावित कुप्रभावों से मानव की यथासम्भव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। छठ पर्व पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा सम्भव है।
पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है। सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं। सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर पहुँचता है, तो पहले वायुमंडल मिलता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे आयन मंडल मिलता है। पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है।
इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी की सतह पर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुँच पाता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है।
अत: सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उस धूप द्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ होता है। छठ जैसी खगोलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरों पर) सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपरावर्तित होती हुई, पृथ्वी पर पुन: सामान्य से अधिक मात्रा में पहुँच जाती हैं।
वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय को यह और भी सघन हो जाती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरान्त आती है। ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है।
वैसे तो यह पर्व विशेष रूप से स्त्रिायों द्वारा ही मनाया जाता है, किंतु पुरुष भी इस पर्व को बडे उत्साह से मनाते हैं। चतुर्थी तिथि को व्रती स्नान करके सात्त्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे बिहार की स्थानीय भाषा में ‘नहायखाय’के नामसे जाना जाता है। पंचमी तिथि को पूरे दिन व्रत रखकर संध्या को प्रसाद ग्रहण किया जाता है। इसे ‘खरना’ अथवा ‘लोहंडा’ कहते हैं।
किसी भी व्रत, पर्व, त्यौहार तथा उत्सव मनाने के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य ही रहता है। छठपर्व मनाने के पीछे भी अनेकानेक पौराणिक तथा लोककथाएं हैं, साथ में एक लंबा इतिहास भी है। भारत में सूर्योपासना की परंपरा वैदिककाल से ही रही है। वैदिक साहित्य में सूर्य को सर्वाधिक प्रत्यक्ष देव माना गया है। संध्योपासनारूप नित्य अवश्यकरणीय कर्म में मुख्यरूप से भगवान् सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
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