साहित्यिक आलेख, यदि आप सचमुच में साहित्यकार हैं तो इसे अवश्य पढ़ें
एक आवाज जो रूह से निकलती है।
आप मंत्री, संतरी यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं पर इतना तो सत्य है कि आप कवि कदापि नहीं बन सकते।
अरे कवि के शब्द तो आत्मा से निकली आवाज है जिसका कनेक्शन प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर से होता है जो किसी व्यक्ति विशेष को ही प्राप्त होता है। मां वाणी के चाहने पर ही उद्गार आते हैं और वही उद्गार कलमबद्ध होकर जमाने के लिए पन्नों पर या आजकल मोबाइल पर आ जाते हैं और फिर अपने अपने हिसाब से तालियाँ बटोरते हैं।
यह बात अलग है कि लोग उसे अलग अलग चश्मे से परिभाषित करते हैं, लेकिन ईश्वर ने आपको जमाने को सही और झूठ की पहचान दिलाने के लिए ही शब्द दिए हैं। जिसका प्रयोग आप निश्चित रूप से बेबाकी के साथ कर सकते हैं।विचारधारात्मक विसंगतियां हो सकतीं हैं। सबकी अपनी अपनी अभिव्यक्ति हो सकती हैं, परन्तु उसे आने तो दें, मत देख कि जमाना क्या कहेगा?
आज़ का भारत दो गुटों में बंटा नजर आता है- एक राष्ट्रवादी और दूसरा तथाकथित धर्मनिरपेक्ष प्राणी। दुर्भाग्यवश ये दोनों ही विचारधारा कहीं न कहीं राजनीतिक स्वार्थबंदियों का शिकार हो गई है।
तभी तो आज लेखनी सिसकती है। पन्नों पर उद्धरित होने को बेताब है, पर जमाने ने उसे बाँध रखा है और वह बस फड़फड़ा कर रह जाती है। जब कोई कहता है मैं राष्ट्रवादी हूँ; मैं सेकुलरवादी हूँ; मैं न्यूट्रलवादी हूँ, मैं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष प्राणी हूं तो कहीं न कहीं उनके आत्मविश्वास को ठेस लगती है और फिर वही लेखनी सिर्फ और सिर्फ महज एक मनोरंजन का साधन बन कर रह जाती है।
हम यह क्यों नहीं समझते कि हम सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं लिखते। वास्तव में हम समाज का वो दर्पण हैं जो जमाने को गर सीखा सकते तो आइना भी दिखा सकते हैं चाहे वो सामाजिक क्षेत्र हो या राजनीतिक या आध्यात्मिक या नैतिक। हमारी लेखनी कुछ ऐसा क्यों न करे जो समाज कल्याण हेतु जागृत हों।
चाहे आप जिस सोच के हों, आप कवि हैं और इसे सामने आने दें। यह मत कहें कि यह नहीं हो, वह नहीं हो, यहाँ पर यह न लिखें, वह न लिखें। अक्सर मैं देखता हूं कि बहुत समूह में यह कहते सुना गया है कि यह साहित्यिक मंच है यहां राजनीतिक बातें न हो। ध्यान रहे राजनीतिज्ञों को भी वक्तव्य या स्क्रिप्ट कोई शिक्षाविद ही लिखकर देता है। यदि ऐसी सोच है तो निश्चित रूप से आप कवि या साहित्यकार नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के साधन हैं और तब फिर ईश्वरीय रूप नहीं हैं।
हे भाई! चाहे कोई कुछ भी सोचे मैं तो वही लिखूँ, जो मेरी आत्मा कहती है। मैंने तो कई समूहों का इस आधार पर परित्याग भी कर दिया है।
बंदिशों में डर डर कर जीना कोई जीना है यारो
मुक्तक
आप वो साहित्यकार हैं,जो अपने शब्दों से दरिया की धार बदल सकते हैं;
आप वो शिल्पकार हैं,जो अपने हुनर से पत्थर का संस्कार बदल सकते हैं;
आने दें उसे रूह की आवाज है वो,मत देख कि जमाना क्या कुछ कहेगा;
आप वो कलाकार हैं,जो अपनी विधाओं से सबकी व्यवहार बदल सकते हैं।
प्रो. सुबोध झा
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