बदलते भारत की तस्वीर, लेख : सुबोध झा
बदलते भारत की तस्वीर
गर समझो, तो जानो;
बस खुद को पहचानो;
बात बिल्कुल ही सही;
बस मानो या ना मानो।
देखा है हमने वहां तबाही का वो मंज़र,
हर तरफ़ बस ख़ून ही खून का समंदर,
गिरी नहीं है अब भी नफ़रत की दीवारें,
ये नफरत क्यों है सबके दिलों के अंदर?
क्या यही है बदलते भारत की तस्वीर?
क्या बदल जायेगी भारत की तकदीर?
सत्ता की गलियारों में उठ रही आवाजें,
क्या भाई भाई के लिए उठेगी शमशीर?
बस यही तो कुछ देख रहा था सपना;
सब लड़ रहे थे कोई नहीं था अपना;
बस विरोध के लिए विरोध हो रहा था;
लहू-लुहान था मां भारती का अंगना।
पहले भी तो हुआ करता था विरोध;
पर सत्ता समर्थित, न होता था अवरोध;
फिर बदला जमाना हवा कुछ ऐसी बही;
बह गए,लेने लगे,निज भाई से प्रतिशोध।
क्या यह ख्वाब था या था कुछ और?
पर दिवास्वप्न का कुछ भी न होता ठौर;
बदलते भारत का हो सपना साकार;
एक बनें, नेक बनें और विश्व सिरमौर।
सुबोध झा
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