प्राकृतिक सौंदर्य व संतुलन में व्यवधान, मानव परेशान, सरकार अनजान...
प्राकृतिक सौंदर्य व संतुलन में व्यवधान, मानव परेशान, सरकार अनजान, उमस भरी गर्मी, सरकार की बेशर्मी से संबंधित एक विपदाग्रस्त कृषक की व्यथा बताती भावनात्मक छंद
सूर्य का ताप,
बन गया संताप,
मानो है शाप।
आषाढ़ मास,
झुलसा आस–पास,
वर्षा की आश।
तपती धरा,
बेचैन वसुंधरा,
बरसो जरा।
गुमस गर्मी,
कब आएगी नर्मी,
हाय बेशर्मी।
प्राणी आहत,
जीवन की चाहत,
मिले राहत।
मददगार,
बनो ऐ सरकार,
हम लाचार।
कृषि को देख,
लिखे सुबोध लेख,
बरसो... मेघ।
सुबोध कुमार झा
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