आधुनिकता की चकाचौंध में लुप्त हो रही कजरी की परंपरा
आधुनिकता की चकाचौंध में लुप्त हो रही कजरी की परंपरा, साहित्यिक मंचों ने की संरक्षण की अपील
सावन-भादो के महीनों में गांव-घर के आंगनों और पेड़ों पर गूंजने वाली कजरी गीतों की परंपरा अब आधुनिकता की चकाचौंध में धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। कभी हरियाली, झूले और कजरी गीतों की मिठास से वातावरण गूंज उठता था, लेकिन अब गांवों में भी न झूले हैं, न कजरी के बोल।
लोक साहित्य और सांस्कृतिक मंचों ने कजरी की इस पारंपरिक विद्या को सहेजने की अपील की है। साहित्यकारों और कलाकारों का कहना है कि अगर समय रहते प्रयास नहीं किए गए, तो यह अमूल्य लोकधरोहर विलुप्त हो जाएगी।
कजरी गीतों का महत्व
कजरी गीत मुख्य रूप से भोजपुरी, अवधी, अंगिका और मगही भाषाओं में गाए जाते हैं। इन गीतों में प्रेम, विरह, प्रकृति की सुंदरता और सावन-भादो के उल्लास का चित्रण मिलता है।
-
कजरी गीतों में प्रेम और बिछोह की भावनाएं प्रमुख रहती हैं।
-
पारंपरिक रूप से इसकी उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से मानी जाती है और इसे कजरा देवी से जोड़ा जाता है।
-
नवविवाहिताएं सावन में पीहर आकर झूले डालतीं और कजरी गीत गाकर उल्लास मनाती थीं।
साहित्यकारों और लोक कलाकारों की अपील
-
डॉ. गोपालचंद्र मंडल ने कहा कि कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती, बल्कि "खेली" भी जाती है।
-
कवि प्रो. सुबोध झा 'आशु' ने बताया कि कजरी गीतों में प्रकृति—बादल, बारिश और हरियाली—का अद्भुत चित्रण होता है। लेकिन भोजपुरी गीतों में फूहड़पन आने के कारण कजरी की लोकप्रियता घटी है।
-
लोक कवि अरविंद निषाद ने कहा कि कजरी हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, जिसे बचाने के लिए समाज और सरकार को आगे आना चाहिए।
-
भूलन दुबे ने भी कहा कि गांवों में अब कजरी की परंपरा लगभग लुप्त हो गई है और इसके संरक्षण के लिए सांस्कृतिक मंचों को सक्रिय होना होगा।
संरक्षण की आवश्यकता
विशेषज्ञों का मानना है कि कजरी लोकगीत न सिर्फ मनोरंजन का साधन थे, बल्कि विरह और श्रृंगार भावनाओं को भी व्यक्त करते थे। आज यह परंपरा सिर्फ साहित्यिक, सांस्कृतिक और जागरूक मंचों तक सीमित रह गई है। यदि इसे बचाना है, तो स्थानीय स्तर पर सांस्कृतिक आयोजन, सरकारी सहयोग और समाज की भागीदारी जरूरी है।
0 Response to "आधुनिकता की चकाचौंध में लुप्त हो रही कजरी की परंपरा"
Post a Comment