"सिनेमा की बातें" आज की फिल्म पुष्पा : अच्छी या बुरी


नोरंजन

किसी भी फ़िल्म को अच्छा या बुरा किस आधार पर कहा जाए? ये मापदण्ड निश्चित होने के बाद ही हम "पुष्पा' को अच्छा या बुरा कह सकते हैं

"सिनेमा की बातें" आज की फिल्म पुष्पा : अच्छी या बुरी


एक महत्वपूर्ण तथ्य हम सभी को मान लेना चाहिए कि फिल्में  केवल मनोरंजन नहीं करती, बल्कि अवचेतन मन में प्रवेश कर व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है। फिल्में प्रेरणा और प्रोत्साहन का भी कार्य करती है। कई लोग ये जानते हैं कि 'एक दूजे के लिए' फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद कई प्रेमी युगलों ने आत्महत्या कर ली थी, क्योंकि कमल हासन, रति अग्निहोत्री अभिनीत 'एक दूजे के लिए' अंतिम संदेश देती थी कि जो विफल हो जाते है वे आत्महत्या कर लेते हैं और जो सफल हो जाते हैं वे विवाह कर लेते हैं । समझिए कि इस माध्यम की शक्ति क्या है? 

अब आते हैं "पुष्पा" पर, यानी फ़िल्म के केंद्रीय पात्र पुष्पराज पर। अवैध संबंधों से जन्मे पुष्पराज से पिता का नाम छीन लिया जाना, हीनताबोध का इतना बड़ा झटका होता है कि वह उसके जीवन मे स्थाई हो जाता है। निर्देशक सुकुमार तथा अभिनेता अल्लु अर्जुन ने इसे पुष्पा के कंधे में आई स्थायी विकृति से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है।

युवा होने पर विकृति के दंश से पीड़ित पुष्पा का पूरा व्यक्तित्व ही विकृत हो जाता है। किसी नियम या विधान की अवहेलना ही उसका जीवन का उद्देश्य हो जाता है। गरीबी से बाहर निकलने के लिए अवैध चंदन तस्करी की सबसे छोटी इकाई के रूप में जुड़ा पुष्पा अपनी दुस्साहसपूर्ण अकड़ तथा तेज बुद्धि से चंदन तस्कर सिंडिकेट का सर्वेसर्वा हो जाता है।

तेज गति से दौड़ती फ़िल्म के दर्शक को यह सब अपने नायक की उन्नति और उपलब्धि लगने लगती है। जबकि सोचने की बात यह है कि किसी अपराधी का अपराध की दुनियाँ में बढ़ते जाना क्या उसकी उन्नति है, क्या ऐसा कोई व्यक्ति नायक हो सकता है या नायक होना चाहिए? नायक गरीब हो सकता है, असुन्दर हो सकता है  पर अनैतिक और अवैधानिक करने वाला कदापि नहीं हो सकता।

क्या शिक्षा मिलती है पुष्पा से, कि जिन्हें पिता का नाम नहीं मिला, उन्हें अपराधी हो जाना चाहिए? जो किसी के सामने नहीं झुकता वह स्वाभिमानी ही है? ऐसा नहीं होता, वह अहंकारी भी हो सकता है और यह अंतर इतना बारीक है कि स्वयं व्यक्ति भी समझ नहीं पाता कि वह कब स्वाभिमान के पाले में था और कब अहंकार के फंदे में आ गया।

सच तो यह है कि पुष्पा समाज को कोई सकारात्मक संदेश नहीं देती, बल्कि मुम्बइया मसाला फ़िल्म की ही तरह अपराधी का महिमा मंडन करती है।

क्या किसी ज़हर की पुड़िया को केवल इसलिए स्वीकार कर लेना चाहिए, कि वह गुलाबी रेशमी कपड़े में बहुत सुंदर ढंग से बांधी गई है और उसकी पैकिंग करने वाले ने अच्छी पैकिंग करने के लिए जी-जान लगा दी है? साहित्य की ही तरह 'आदर्श की स्थापना' फ़िल्म का भी आवश्यक अंग होना ही चाहिए। जिससे पुष्पा कई प्रकाश वर्ष दूर है। ये सिर्फ मेरे विचार हैं, आपके विचार अलग हो सकते हैं।

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