भाग – 3, संथाल विद्रोह आजादी की पहली लड़ाई


अबतक आपने पढ़ा कि क्रांतिवीर मंगल पाण्डेय ने अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज बुलंद कर भारतीय जनमानस में आजादी की एक चिंगारी फूंक दी थी।योजना बनी कि एक साथ सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी जाए। इसी उद्देश्य से सभी को दिल्ली पहूँचना था।

परन्तु दुर्भाग्यवश अतिउत्साह के कारण क्रांति की ज्वाला समय के पूर्व ही भड़क गई और सभी टुकड़ों में बंट गए। यही थोड़ी गलती हुई और अंग्रेजी सेना सतर्क हो गई, नहीं तो भारत में अंग्रेजों का समूल विनाश सुनिश्चित था। जिसके सूत्रधार महान क्रांतिकारी मंगल पाण्डेय ही होते।

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भारतीय इतिहासकारों ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ही आजादी की पहली लड़ाई माना है और फिर यही से भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम की कहानी की शुरुआत होती है। यहाँ हमारी मंशा किसी भी कीमत पर क्रांतिकारी मंगल पाण्डेय की शहादत को नजरअंदाज करने का कतई नहीं है।

फिर भी भारतीय इतिहासकारों ने एक भयंकर भूल अवश्य की है। क्योंकि 1857 के पूर्व भी 1855 में झारखंड प्रांत के साहिबगंज जिला स्थित बरहेट के भोगनाडीह में आजादी की पहली लड़ाई लड़ी गई थी। (सौभाग्य से इसी क्षेत्र का ही मैं सुबोध झा मूल निवासी भी हूं।

जिसे अंग्रेजों ने बेरहमी से कुचल दिया। अपने परम्परागत हथियार तीर–धनुष से लैस आदिवासियों ने एक ही परिवार के छह भाई बहन, सिद्धो–कान्हू, चांद–भैरव, और फूलो–झानो के नेतृत्व में बंदूकधारी अंग्रेजियत की हवा निकाल दी थी और एक बड़े भूभाग में समानांतर सरकार चलाई थी।

परंतु कई जयचंदों के कारण संथाल विद्रोह, जिसे हूल क्रांति कहा जाता है, असफल हो गया। इसमें लगभग 20,000 (बीस हजार) आदिवासियों ने अपनी शहादत दी थी। आज भी साहेबगंज जिला अंतर्गत पंचकटिया शहीद स्थल है।

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जहाँ सिद्धो–कान्हू को सरेआम पेड़ से लटकाकर फाँसी दी गई थी। वहाँ 30 जून को प्रति वर्ष मेले लगते हैं। इसे हूल दिवस कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इतिहासकारों ने और भी कई महान क्रांतिवीरों के नाम के साथ न्याय नहीं किया है।

जैसे - नामधारी सिख, गुरू रामसिंह तथा पुणे के वासुदेव फड़के बलवंत को ज्यादा तवज्जो न देना भी भूल थी। जबकि क्रांतिकारी द्वय ने भी समामनंतर सरकार चलाई थी और अंग्रेजियत की चूलें हिला दी थी। यह एपिसोड ऐसे ही वीरों के लिए वर्णित है।


भारतीय इतिहासकारों की भयंकर भूल

पूर्व भी झारखंड में विद्रोह  हुआ; 

जिसे इतिहासकारों ने दबा दिया।


यह आजादी की प्रथम लड़ाई थी;

जिसे हूल क्रांति था नाम  दिया।


सिद्धो–कान्हू संग आदिवासियों ने;

अंग्रेजी सत्ता का प्रतिकार किया।


30 जून 1855 भोगनाडीह  में; 

अंग्रेजों ने संथालों का नरसंहार किया।

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सिद्धो का नारा पत्ता पत्ता खुद को जोड़ो;

करो या मरो,अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो।


सिद्धो–कान्हू के आह्वान पर सभी जुटते गए;

अंग्रेजों की क्रूरता में आदिवासी मिटते गए।


संताली माटी अब थी पुकारती;

फूलो झानो को ही थी निहारती;


नाक में दम कर दी थी  दोनों ने;

ब्रिटिश हुकूमत पर थी दहाड़ती।


पद पैसे के लोभ में कुछ ने छोड़ा संस्कार;

यहाँ भी काम कर गए भारत के गद्दार।


सभी बहनें शहीद हुईं सभी भाई पकड़े गए;

सिद्धो–कान्हू को फाँसी हुई

पेड़ से लटकाए गए।

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बढ़ता गया अब शोषण अंग्रेजों का;

पर जोश नहीं कम था जवानों का।


चहूँओर क्रांति की ज्वाला जल उठी;

फिर युवा पीढ़ी लड़ने को चल पड़ी।


1858 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया ने;

सेक्रेटरी ऑफ स्टेट की घोषणा की।


फिर कम्पनी के गवर्नर जनरल को;

पुरे भारत के वायसराय की पदवी दी।


वफादार राजाओं व जमींदारों को;

सत्ता ने तो बस पुरस्कृत  किया;


पर शिक्षित आम जिम्मेदारों को;

अंग्रेजों ने था तिरस्कृत किया।


सम्पूर्ण भारत में सत्ता के प्रति; 

तिरस्कार व घृणा बढ़ती गई;

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अब स्वातंत्र्य संग्राम के प्रति;

जन जन की तृष्णा बढ़ती गई।


सन् 1859-60 तक भारत में,

अंग्रेज बनिये फल फूलते रहे;


इधर नील की खेती करने में, 

भारतीय किसान झूलसते रहे।


बंगाल  के नदिया जिले में, 

कई कोठियां थी झूलस गई;


तब फिर बंगाल, बिहार में, 

नील विद्रोह की सुलह हुई।


सन 1872 में थे कूका सिख नामधारी;

गुरू रामसिंह का भारत रहे सदा आभारी;


सात लाख कूके वीरों की सशस्त्र सेना बनाई;

पंजाब के 22 जिले में समांतर सरकार चलाई।


सन 1875  - 79 महाराष्ट्र  में,

ब्रिटिश के लिए बना  आतंक;


कहलाया वह आद्य क्रांतिकारी,

नामित वासुदेव फड़के बलवंत।


भील,कोल्ली,उरांव जाति से; 

एक संगठन बनाया रामोशी;


पुणे से ही मुक्ति संग्राम से, 

टूटी जन - जन की खामोशी।


नियंत्रण में लिया सम्पूर्ण पुणे को,

फिर जन जन उनके थे मुरीद हुए,


पर गद्दार थे पकड़वाए फड़के को;

कालापानी यातना में शहीद हुए।


क्रमश:--------

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