भारत की वर्तमान परिस्थिति पर समसामयिक रचनात्मक अभिव्यक्ति, "रहने दो इंसानियत जिंदा"
रहने दो इन्सानियत जिन्दा
गर है हिम्मत तो आगे निकलो;
भारत बदल रहा तुम भी बदलो;
माँ भारती है तुझे पुकार रही;
गर भले हो, तो कुछ कर गुजरो।
दुश्मन बैठा है भारत भर में;
अपने ही हैं अपनों के डर में;
कौन भला है, कौन बुरा है;
वही खोजो अपने शहर में।
भाईजान मुझे वो कहता है;
पर कहाँ निभा वो पाता है;
भाई बनकर तो हम रहते हैं;
पर जान लेकर वह जाता है।
भाईचारा बस कहा जाता है;
पर कहाँ कोई निभा पाता है;
भाई बनकर हम रह जाते हैं;
पर वह तो चारा खा जाता है।
गर हम-सब यहां भाई भाई हैं,
तो फिर तुम्हें डर क्यों लगता है?
गर तुम जबर्दस्ती भारत घुसे हो,
तो तुम्हें यहां घर क्यों लगता है?
मत कर भारत को शर्मिन्दा,
रहने दे इन्सानियत ज़िन्दा।
चलो "सुबोध" अब इन्सान बनें,
ताकि अपना भारत महान बने।
प्रो.सुबोध झा
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